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Tuesday, April 29, 2014

कोसनों के परोसे 04-30

कोसनों के परोसे
—चौं रे चम्पू! जे नेता लोग बोलिबे ते पहलै कछू सोचैं ऐं कै नायं?
—चचा, मुझे लगता है कि गालियां बोलने और कोसनों के परोसने से पहले, उन्हें बनाने वाली कोई टीम ज़रूर काम करती होगी।
—का काम कत्ती होयगी?
—देखती होगी कानूनी दाव-पेच। कह भी दो, पर पकड़ में भी न आओ। एक ने नमूना कह दिया। अब देखा जाए तो नमूना मॉडल को कहते हैं। गुजरात मॉडल की जगह गुजरात-नमूना कह दो तो कठोर बोल बन सकता है, पर पकड़ में नहीं आएगा। चूहों की तरह दौड़ना कहने में भी कानून नहीं पकड़ सकता। सीधे चूहा कहा होता तो शायद चोट सीधी होती। सम्बोधनों का भी आनन्द पूरा लिया जा रहा है। पप्पू, फेंकू, नमो, रागा, शहजादा, दामादश्री ऐसे सम्बोधन हैं जिन पर कानून कुछ बोल नहीं सकता। डैमोक्रेसी में यही व्यंग्य का रंग है। बाबा की टीम बुद्धि नहीं लगाती या ये भी कह सकते हैं कि बाबा ने अपनी बुद्धि का ठेका किसी को नहीं दिया। किसी घर-गृहस्थ ने तो हनीमून का जिक्र नहीं किया। बाबा कर बैठा। वह भी दलितों के संदर्भ में। कस गया कानून का शिकंजा। फिलहाल कड़वे बोलों का बोलबाला जारी रहेगा चचा। एक-दूसरे को तिलमिलाने का ज़माना है। दिल-मिलाने का ज़माना आएगा सोलह तारीख के बाद। सब भूल जाएंगे किस ने किस को कितनी गालियां दीं। अभी तो वृषभ-युद्ध जारी है, दर्शक आनन्द ले रहे हैं। मोदी नाम की नई व्याख्या हुई है। मॉडल ऑफ डिवाइडिंग इंडिया। मोदी ने आरएसवीपी का कर दिया राहुल, सोनिया, वाड्रा, प्रियंका। व्यक्तिगत आरोपों की तोपों से बड़ी खोजपूर्ण उक्तियां निकल रही हैं। कितने दिमाग़ लगे होंगे इसके पीछे चचा, आप अन्दाज़ा नहीं लगा सकते। माहौल गंभीर रूप से अगंभीर है। मुद्दों के गुद्दे सूख कर ठूंठ हो चुके हैं, बेतुके बोलों की बेलों पर बहार आ रही है। मेरा एक मन है चचा।
—बता का ऐ तेरौ मन?
—मैं चाहता हूं कि इन राजनेताओं की सुविधा के लिए कोसनों का एक परोसा बनाऊं। जिसको जो पसन्द हो ले जाए और बगीची के दानकोष की रसीद कटवा ले। वैसे हमारे ब्रज में कोसनों की कमी नहीं है। उन्हीं को संशोधित किया जा सकता है। जैसे कलई खुल जाएगी अगर तेरे मुंह में कलई करा दी। हवा सीटी बजाएगी अगर ज़्यादा मुंह खोला। ख़ुदा करे जैसे अपनी बीवी को भूल गया, वैसे ही प्रेमिकाओं के नाम भी भूल जाए। ख़ुजाने के लिए ख़रैरा रख ले, बांह चढ़ाने से क्या होगा। जब तू लौटे तो अपनी भाषा ही भूल जाए। जब खाना खाए तो तेरी आंख तश्तरी में गिर जाए। जिस-जिस ने ज़मीन ख़रीदी, धरती दिवस पर उनकी धरती खिसक जाए।
—इन कोसनन में कोई दम नायं। सीधी मारकाट चल रई ऐ। इत्तौ दिमाग कोई नायं लगायगौ!
—चलो फिर मैं आपको सम्बोधन के रूप में कुछ शब्द और शब्दयुग्म देता हूं, इनका प्रयोग किया जा सकता है। जैसे छिनट्टे, गुल्लू के पट्ठे, भ्रष्ट भूसाचारी, पचरंगी अचारी, मोटी के मृदंग, नंगधड़ंग, कुर्सी के कुसंगी, तोता-तिरंगी, सड़े हुए सैम्पिल, स्टील की सैंडिल, मिस्टर उड़ंछू, बेतुके बिच्छू, कटी बांह के कुर्ते, बेगुन भुर्ते…
—रहन्दै, रहन्दै! सम्बोधन सब्दन के बार-बार पलटिबे ते नायं आमैं, पलटबार ते आयौ करैं। तू तौ जे बता कै चुनाव की आचार संघिता का बोलै?
—आचार संहिता का पालन कौन कर रहा है चचा! वहां तो सीधे कहा गया है कि कोई दल ऐसा काम न करे, जिससे जातियों और धार्मिक या भाषाई समुदायों के बीच मतभेद बढ़े या घृणा फैले। राजनीतिक दलों को आलोचना के समय कार्यक्रम व नीतियों तक सीमित रहना चाहिए न कि व्यक्तिगत आरोप लगाएं। मत पाने के लिए भ्रष्ट आचरण का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। जैसे-रिश्वत देना, मतदाताओं को परेशान करना आदि। किसी की अनुमति के बिना उसकी दीवार, अहाते या भूमि का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। किसी दल की सभा या जुलूस में बाधा नहीं डाली जानी चाहिए। लेकिन चचा, सब कुछ धड़ल्ले से हो रहा है। आचार संहिता के उल्लंघन को दिन-रात टी.वी. चैनलों पर दिखाना भी सरासर उल्लंघन है। आचार संहिता कहती है कि राजनीतिक दल ऐसी कोई भी अपील जारी नहीं कर सकते, जिससे किसी की धार्मिक या जातीय भावनाओं को चोट पहुंचती हो। पर हो क्या रहा है देख लो।
—चोट की छोड़, बोट पड़नी चइऐ डंके की चोट।
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